Thursday, July 2, 2015


ये तस्वीर अपने आप में बहुत कुछ कहती है, कैमरे में मैने इस पल को तो कैद कर लिया लेकिन और भी बहुत कुछ था इस पल के साथ जुड़ा हुआ जो मैं उस वक्त देख रहा था, महसूस कर रहा था। मैं उस पल को जी रहा था जो एक कैमरा आप तक पहुंचा तो सकता है लेकिन उसे एक इंसान की तरफ बयां करने में अभी शायद समर्थ नहीं है।
कुछ वक्त पहले किसी काम के सिलसिले में गांव जाना हुआ, जी हां ठीक पढ़ा आपने, अब अपने खुद के गांव किसी काम के सिलसिले में ही जाना हो पाता है। वो वक्त पीछे, शायद बहुत पीछे छूट गया है जब गांव जाना अपनी मर्जी हुआ करती थी। खैर कोशिश यही रहती है कि जब भी वक्त मिले वापस उस परिवेश में कुछ वक्त बिताया जाए, और एक नई जिंदगी खुद में संजों कर फिर से ताज़ा-दम हो जाएं, ताकि अपनी शहरी ज़िंदगी की जद्दोजहद का सामना कर सकें। 
और यही कुछ ऐसे पल होते हैं जो आपको जाने-अनजाने बहुत कुछ दे जाते हैं। जिजीविषा... क्या होती है, कैसे तमाम विषमताओं, तमाम अभावों के बीच ज़िंदगी कैसे पनपती है, हमारे शहरों से ज़िंदगी के कुछ सबक शायद अछूते रह जाते हैं। 
गांव के स्कूल के लौटते इन बच्चों के चेहरे थकान से उतरे हुए नहीं बल्कि खुशी से दमक रहे थे, इन बच्चों के होठों पर कोई शिकायत नहीं थी बल्कि वो स्कूल में सीखा कोई गीत गुनगुना रहे थे और सिर्फ गुनगुना नहीं रहे थे बल्कि तेज़ आवाज़ में मास्टर जी द्वारा सिखाए गए पाठ को याद कर रहे थे। इन बच्चों को घर जाकर ट्यूशन नहीं जाना था, ना किसी डांस क्लास में जाना था, ना कहीं म्यूज़िक क्लास में जाना था। घर पर टीवी तो शायद होगा ही लेकिन उस पर तमाम चैनल होंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। शहर की सभी सुविधाओं की तुलना नहीं करूगा लेकिन इन बच्चों को घर जाकर आराम करने को भी मिलेगा ये शायद इस तरफ ध्यान भी नहीं देते होंगे। लेकिन ये खुश थे, स्कूल जाकर ... इनकी बातों में स्कूल ना जाने के बहाने नहीं थे... सपने थे, बालसुलभ जिज्ञासा थी।
कुछ दिन पहले एबीपी न्यूज़ चैनल पर कार्यक्रम रामराज्य देखा। रामराज्य के इस एपिसोड में फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की बात की गई। क्या ऐसा हमारे अपने देश, हमारे अपने शहरों और हमारे अपने गांवों में नहीं हो सकता है। ये सोच... बहुत पहले से हमारी व्यवस्था का हिस्सा है, लेकिन एक आदर्श के तौर पर इस सोच का साकार होना अभी बाकी है। 

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