Monday, August 15, 2016

आज़ादी मुबारक़


अपनी- अपनी आज़ादी आप सभी को मुबारक ... 
मुझे तलाश है मेरी ज़िंदगी की... 
मेरी आज़ादी मेरे सपनों में है ...
मेरी मंज़िल मेरे कदमों में हैं ...

Tuesday, August 9, 2016

धूप और बादल


इस फ्लाईओवर से तकरीबन रोज़ ही गुज़रना होता है और रोज़ाना इंतज़ार रहता था, धूप और बादलों का  IGI स्टेडियम के ऊपर, ठीक बिल्कुल ऐसे ही। काले और सफेद, दो तरह के बादल और खिली हुई धूप।

Friday, July 17, 2015

ये कैसी तस्वीर ...


इस तस्वीर की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है (शाम के धुंधलके में कूड़े और सड़ांध से यथासंभव दूरी बनाकर मोबाइल फोन से खींची गई तस्वीर) ... लेकिन यकीन मानिए इस कूड़ेघर के ठीक सामने रहने वाले लोगों के जीवन की क्वालिटी भी बहुत अच्छी नहीं है। कूड़ाघर अपनी क्षमता से ज़्यादा कूड़ा समेटे हुए है और जल्द ही सामने की खाली जगह पर भी कूड़ा फैला हुआ नज़र आएगा। आने-जाने वाले तो नाक पर रूमाल रखकर या फिर कुछ देर के लिए सांस रोक-कर निकल जाते हैं लेकिन इस कूड़ाघर के ठीक सामने रहने वाले दिन-भर सड़क पर चारपाई डालकर बैठे रहते हैं। उनका पूरा दिन और पूरी दिनचर्या इसी तरह निकल जाती है। ये भी दिल्ली की एक तस्वीर है ...

Friday, July 10, 2015

आपके पधारने का धन्यवाद...

आपके पधारने का धन्यवाद...
ये बोर्ड कुछ यही कह रहा है, लेकिन बारिश के मौसम में इस धन्यवाद के अगले ही कदम पर आपको क्या मिल जाए, आप सोच भी नहीं सकते। और यकीन मानिए आप करना भी नहीं चाहेंगे।
ज़रा ध्यान से देखिए... तस्वीर में आप एक आदमी को हाथ में कुदाल लिए खड़ा देख सकते हैं।
ये भाई साहब पानी की निकासी का रास्ता खोज रहे थे। किसी महकमे के इंतज़ार में तो यहां के लोग सड़ांध भरे इस पानी में यूहीं सारा मौसम बैठे रहेंगे लेकिन बारिश की हर फुहार आपके लिए राहत नहीं परेशानी का सबब बनती जाएगी। ऐसा कमोबेश इन लोगों के साथ हर साल हर बारिश होता होगा लेकिन इस समस्या का समाधान कब निकलेगा ये कोई नहीं जानता। पार्टी बदल जाती है, नेता बदल जाते हैं, सरकारें बदल जाती हैं लेकिन कुछ है जो साल दर साल यूंही बदस्तूर जारी रहता है और वो है दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों में लोगों का नारकीय हालात में जीवन। मौसम की पहली बारिश ही सिविक एजेंसियों की पोल खोल देती है लेकिन यहां ये हालात पहली से आखिरी बारिश तक बने रहते हैं... और शायद बिना बारिश के भी। हम लोग राजधानी की सड़कों पर एक-दो घंटे का जलभराव नहीं झेल पाते हैं और ये सड़ांध इन लोगों के जीवन का जैसे हिस्सा बन जाती है...एक-दो नहीं बल्कि पूरे 24 घंटे... ऐसा एक-दो दिन नहीं बल्कि सालों से चला आ रहा है और शिकायतें हर साल यूंही बह जाती है इसी तरह... लोग जैसे आदी हो चले हैं . . .

Thursday, July 2, 2015


ये तस्वीर अपने आप में बहुत कुछ कहती है, कैमरे में मैने इस पल को तो कैद कर लिया लेकिन और भी बहुत कुछ था इस पल के साथ जुड़ा हुआ जो मैं उस वक्त देख रहा था, महसूस कर रहा था। मैं उस पल को जी रहा था जो एक कैमरा आप तक पहुंचा तो सकता है लेकिन उसे एक इंसान की तरफ बयां करने में अभी शायद समर्थ नहीं है।
कुछ वक्त पहले किसी काम के सिलसिले में गांव जाना हुआ, जी हां ठीक पढ़ा आपने, अब अपने खुद के गांव किसी काम के सिलसिले में ही जाना हो पाता है। वो वक्त पीछे, शायद बहुत पीछे छूट गया है जब गांव जाना अपनी मर्जी हुआ करती थी। खैर कोशिश यही रहती है कि जब भी वक्त मिले वापस उस परिवेश में कुछ वक्त बिताया जाए, और एक नई जिंदगी खुद में संजों कर फिर से ताज़ा-दम हो जाएं, ताकि अपनी शहरी ज़िंदगी की जद्दोजहद का सामना कर सकें। 
और यही कुछ ऐसे पल होते हैं जो आपको जाने-अनजाने बहुत कुछ दे जाते हैं। जिजीविषा... क्या होती है, कैसे तमाम विषमताओं, तमाम अभावों के बीच ज़िंदगी कैसे पनपती है, हमारे शहरों से ज़िंदगी के कुछ सबक शायद अछूते रह जाते हैं। 
गांव के स्कूल के लौटते इन बच्चों के चेहरे थकान से उतरे हुए नहीं बल्कि खुशी से दमक रहे थे, इन बच्चों के होठों पर कोई शिकायत नहीं थी बल्कि वो स्कूल में सीखा कोई गीत गुनगुना रहे थे और सिर्फ गुनगुना नहीं रहे थे बल्कि तेज़ आवाज़ में मास्टर जी द्वारा सिखाए गए पाठ को याद कर रहे थे। इन बच्चों को घर जाकर ट्यूशन नहीं जाना था, ना किसी डांस क्लास में जाना था, ना कहीं म्यूज़िक क्लास में जाना था। घर पर टीवी तो शायद होगा ही लेकिन उस पर तमाम चैनल होंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। शहर की सभी सुविधाओं की तुलना नहीं करूगा लेकिन इन बच्चों को घर जाकर आराम करने को भी मिलेगा ये शायद इस तरफ ध्यान भी नहीं देते होंगे। लेकिन ये खुश थे, स्कूल जाकर ... इनकी बातों में स्कूल ना जाने के बहाने नहीं थे... सपने थे, बालसुलभ जिज्ञासा थी।
कुछ दिन पहले एबीपी न्यूज़ चैनल पर कार्यक्रम रामराज्य देखा। रामराज्य के इस एपिसोड में फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की बात की गई। क्या ऐसा हमारे अपने देश, हमारे अपने शहरों और हमारे अपने गांवों में नहीं हो सकता है। ये सोच... बहुत पहले से हमारी व्यवस्था का हिस्सा है, लेकिन एक आदर्श के तौर पर इस सोच का साकार होना अभी बाकी है।